2 line Shayari wasiullah muhib

 

Rizwan Ahmed 25-Oct-2020

है मेरे पहलू में और मुझ को नज़र आता नहीं

उस परी का सेहर यारो कुछ कहा जाता नहीं ,


दैर में का'बे में मयख़ाने में और मस्जिद में

जल्वा-गर सब में मिरा यार है अल्लाह अल्लाह ,


साक़ी हमें क़सम है तिरी चश्म-ए-मस्त की

तुझ बिन जो ख़्वाब में भी पिएँ मय हराम हो ,


कीजे वो कि मियाँ जिस से दिल कोई हो मलूल

सिवाए इस के जो जी चाहे सो किया कीजे ,


दोनों तेरी जुस्तुजू में फिरते हैं दर दर तबाह

दैर हिन्दू छोड़ कर काबा मुसलमाँ छोड़ कर ,


दोस्ती छूटे छुड़ाए से किसू के किस तरह

बंद होता ही नहीं रस्ता दिलों की राह का ,


का'बे में वही ख़ुद है वही दैर में है आप

हिन्दू कहो या उस को मुसलमान वही है ,


इन दो के सिवा कोई फ़लक से हुआ पार

या तीर मिरी आह का या उस की नज़र का.


शैख़ कहते हैं मुझे दैर जा काबा चल

बरहमन कहते हैं क्यूँ याँ भी ख़ुदा है कि नहीं,


ब-तस्ख़ीर-बुताँ तस्बीह क्यूँ ज़ाहिद फिराते हैं

ये लोहे के चने वल्लाह आशिक़ ही चबाते हैं ,


रहीम राम की सुमरन है शैख़ हिन्दू को

दिल उस के नाम की रटना रटे है क्या कीजे,


जो अपने जीते-जी को कुएँ में डुबोइए

तो चाह में किसी की गिरफ़्तार होइए ,


बरहमन दैर को राही हुआ और शैख़ का'बे को

निकल कर उस दोराहे से मैं कू-ए-यार में आया,


काफ़िर हूँ गर मैं नाम भी का'बे का लूँ कभी

वो संग-दिल सनम जो कभू मुझ से राम हो ,


तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़ेर-ए-आसमाँ की समेट

ज़मीं ने खाई व-लेकिन भरा उस का पेट ,


जब नशे में हम ने कुछ मीठे की ख़्वाहिश उस से की

तुर्श हो बोला कि क्यूँ बे तू भी इस लाएक़ हुआ,


रक़ीब जम के ये बैठा कि हम उठे नाचार

ये पत्थर अब हटाए हटे है क्या कीजे ,


जो अज़-ख़ुद-रफ़्ता है गुमराह है वो रहनुमा मेरा

जो इक आलम से है बेगाना है वो आश्ना मेरा,


ब-मअ'नी कुफ़्र से इस्लाम कब ख़ाली है ज़ाहिद

निकल सुबहे से रिश्ता सूरत-ए-ज़ुन्नार हो पैदा ,


अरे ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली

कि इक आशिक़ नहीं कूचा तिरा वीरान सूना है,

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